Tuesday, 30 July 2013

यादोँ का inbox .. 1

आज अचानक ख़याल आया जरा वक्त रुक कर देखने का। कम से कम १० साल पीछे क्या कुछ छोड़ आया , क्या पाया।अपना बचपन अपना आँगन।छोटी सी गलियाँ जहाँ cricket खेला करते थे। पड़ोसी की कच्ची खपरैल पर जाती ball और फिर चिल्लाती एक आवाज किसने मारी गेंद।
       माँ के डर से छुपना और फिर शाम के होते ही घर जाकर चुप-चाप किताब खोल पढने बैठ जाना।डर से चेहरे पे हवाईयाँ उड़ी रहती थी।वो लालटेन की रोशनी में झाँकना, हर बात पर चौकना … कहीं कोई शिकायत करने तो नहीं आया। लेकिन आज इन सब बातोँ को सोच कर चेहरे पर हलकी सी मुस्कान फैल जाती है।कैसा था अपना बचपन पर कहाँ गया।
      cigarette पीते पकड़े जाने पर पड़ी माँ की थप्पड़ जिसने पूरी ज़िन्दगी मुझे उससे दूर रखा। पापा के हाथ को थाम कर चलता वो बचपन जिसने मुझे साड़ी बुराईयोँ से बचा कर रखा।  
       आज हमारा गाँव काफ़ी बदल चुका है … खपरैल की जगह पक्के।गलियाँ कहाँ मिलती हैं, लालच लोगोँ में इतना बढ़ गया है कि चलने की जमीन में भी अपना आधिपत्य जमाते हैं। cricket अब गलियो में नहीं बस TV screen पर ही देखते हैं।बेफिकर चिलचिलाती धूप में वो नंगे पाँव दौड़ता बचपन कहीं गुम हो चुका है। नशे में धुत्त बच्चे, चौक चौराहे पर अपनी ज़िन्दगी बेकार करते नजर आते हैं।
        ये सारी बातें सोच ही रही थी कि तभी train की सीटी बजी और announcement हुआ उस train के पहुँचने का  जिसका मुझे बरसो से इन्तज़ार था … मेरी माँ उसी train से आ रही थी, हमेशा के लिए मेरे पास। train रूकते ही मैं झट से डिब्बे में चढ़ गई। मेरी माँ जो पहली बार अकेले सफ़र कर रही थी उसके चेहरे पर थोड़ी परेशानी, हड़बड़ाहट, डर; अनजान शहर और अजनबी लोगोँ से साफ़ दिख रहा था।
       मुझे देखते ही उसके चेहरे पर एक अजीब सा सुकून आ गया पर उसकी बोझिल निगाहें कई सारे प्रश्न छोड़ गई। क्योँ नहीं आई तू लेने, मुझे अकेले क्योँ आना पड़ा। तुम इतनी व्यस्त हो गयी कि अपनी माँ के लिए समय नहीं निकाल सकी। 
       बस उसके इन सब प्रश्नो का ज़बाब ढूँढ ही रही थी कि मेरी निगाह उसके बक्से पर पड़ी। वही पुराना बक्सा बचपन से जब भी मैंने उसको देखा वो उसी में अपना सामान ले कर कहीं जाया करती थी। कभी कभी मुझे चिढ़ होती थी उसके बक्से से। मैं झल्ला जाती थी। कई बार बोली भी की नई bag ले ले पर वो हमेशा बोलती थी कि जब तू नौकरी करेगी ना तब भी मैं तेरे पास यही बक्सा ले कर आऊँगी।उसका बक्सा देखते ही मैं मन ही मन हँस पड़ी। नहीं बदली मेरी माँ, बदलती भी कैसे उसने उस बक्से में सारी यादोँ को कैद जो कर रखा था।    
     
        

ज़िन्दगी को एक मुकम्मल...

ज़िन्दगी को एक मुकम्मल जहाँ दे दो
मेरी धरती को थोड़ा सा आसमान दे दो
मुठ्ठी भर खुशियाँ दामन में समा लूँ
गम के आने तक ज़िन्दगी को ये फ़रमान दे दो 

Tuesday, 23 July 2013

सफ़र कितने भी...

हर दुआ जो दिल में आये
उसे माँगी नहीं जाती
साँसे कितनी भी कमजोर क्योँ ना हो
मौत की आशा पर छोड़ी नहीं जाती
सफ़र कितने भी तय क्योँ ना की हो
मंजिल आने तक उसे रोकी नहीं जाती 

Monday, 22 July 2013

हम कमजोर नहीं...

दर्द की आहट पर ज़िन्दगी को सँभलने दो
ख़ामोशी की धार कितनी भी क्यूँ ना हो
हर त़ार को झनकने दो
गमो का पैमाना बेहोश ना कर दे
हर ज़ख्म को हौले से पिघलने दो
हम कमजोर नहीं
जाकर कह दो वक्त के थपेड़ो से
बाजी आती है हमें भी खेलने
बस तमाशबीन को कभी तमाशा तो करने दो